
Operation Sindoor: रूस की तटस्थता और चीन से बढ़ती नजदीकी ने भारत-रूस संबंधों को नई कसौटी पर ला खड़ा किया है. भारत को अब भावनात्मक भरोसे से आगे बढ़कर बहुध्रुवीय कूटनीति अपनानी होगी, ताकि भविष्य के सुरक्षा संकटों में वह मजबूती से खड़ा रह सके.

संघर्ष में रूस की चुप्पी, भारत के लिए चेतावनी?
जब भारत पाकिस्तान के साथ हालिया संघर्ष में उलझा, तो उस वक्त रूस का रुख पूरी तरह तटस्थ रहा. न समर्थन, न विरोध. रूस ने न आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान पर कोई कड़ी टिप्पणी की और न ही भारत के ऑपरेशन सिंदूर का खुलकर समर्थन किया. विदेश मंत्रालय का बयान सिर्फ इतना था कि “सभी पक्ष संयम बरतें और संवाद को प्राथमिकता दें.” यह वही भाषा है, जिसका उपयोग पश्चिमी देश या संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन करते हैं. लेकिन क्या रूस की चुप्पी का मतलब यह है कि वह अब भारत के साथ खड़ा नहीं है? या यह कि चीन के साथ उसकी बढ़ती निकटता ने भारत के साथ उसके संबंधों में ठंडापन ला दिया है?
Operation Sindoor:
भारत में दशकों से एक बात कही जाती रही है कि 1971 की जंग में पाकिस्तान के खिलाफ रूस ने हमारा साथ देकर यह साबित कर दिया कि वह भारत का सबसे भरोसेमंद सहयोगी है. रूस की यह भूमिका भारत की आमजन चेतना में इतनी गहराई से दर्ज हो चुकी है कि अब यह भारतीय लोककथाओं का हिस्सा बन चुकी है. यही वजह है कि आज भी आम भारतीय रूस को भरोसेमंद मित्र मानता है, जबकि अमेरिका को लेकर लोगों में पूरी तरह से विश्वास नहीं दिखाई देता. बावजूद इसके कि बीते कुछ वर्षों में अमेरिका ने टेक्नोलॉजी, डिफेंस और रणनीतिक साझेदारी में भारत की अच्छी-खासी मदद की है.

मगर हाल के समय में पाकिस्तान के साथ चल रहे तनाव के बीच रूस की खामोशी ने भारतीय जनमानस और विदेश नीति विशेषज्ञों को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या अब रूस से हमें उसी तरह की मदद की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, जैसी पहले की जाती रही है?
चीन और रूस की बढ़ती नजदीकी
जिस वक्त भारत पाकिस्तान के साथ तनाव झेल रहा था, उसी समय चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग रूस के विक्ट्री डे परेड में मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे. यह उनकी ग्यारहवीं रूस यात्रा थी. चीन, जो अमेरिका के साथ एक रणनीतिक टकराव में फंसा हुआ है, रूस को अपने सबसे मजबूत साझेदार के रूप में देख रहा है. हाल ही में दोनों देशों के नेताओं ने संयुक्त घोषणापत्रों में अमेरिका को खतरे के रूप में चिन्हित किया और एशिया में नाटो के संभावित विस्तार को लेकर चिंता जताई. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत-पाकिस्तान संघर्ष के समय रूस की चुप्पी को इसी भू-राजनीतिक फ्रेम में देखा जाना चाहिए|
पाकिस्तान से भी रिश्ते जोड़ रहा है रूस
रूस केवल चीन ही नहीं, पाकिस्तान से भी संबंध बना रहा है. हाल के वर्षों में रूस और पाकिस्तान की सेनाओं ने संयुक्त सैन्य अभ्यास किए हैं और दोनों देशों के बीच डिफेंस डील्स की बात भी सामने आई है. यह भारत के लिए एक नई और असहज स्थिति है, क्योंकि अब वह यह नहीं कह सकता कि रूस केवल भारत का ही रणनीतिक साझेदार है. हालांकि भारत ने भी अपनी रक्षा जरूरतों के लिए विविधता की नीति अपनाई है. 2009 से 2013 तक भारत ने 76% हथियार रूस से खरीदे थे, लेकिन 2013 से 2019 के बीच ये संख्या 36% तक घट गई. अब भारत अमेरिका, फ्रांस, इजरायल और जर्मनी से भी डिफेंस टेक्नोलॉजी खरीद रहा है.
क्या अब रूस भारत की प्राथमिकता नहीं रहा?
भारत ने रूस से एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम, Su-30MKI, T-90 टैंक, न्यूक्लियर सबमरीन जैसे प्रमुख हथियार प्लेटफॉर्म लिए हैं. अब भी भारत के 60 से 70 प्रतिशत हथियार रूसी मूल के हैं. इसके बावजूद, रूस की चुप्पी और तटस्थता यह दिखाती है कि अब उसकी प्राथमिकता सूची में भारत शीर्ष पर नहीं है.
यूक्रेन युद्ध ने रूस को राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक रूप से काफी कमजोर कर दिया है. वह अब पश्चिमी प्रतिबंधों और वैश्विक अलगाव से जूझ रहा है. ऐसे में रूस अब चीन पर आर्थिक और रणनीतिक रूप से अधिक निर्भर हो गया है. और चूंकि चीन पाकिस्तान का मजबूत सहयोगी है, इसलिए रूस के लिए भारत के पक्ष में खड़े होना मुश्किल होता जा रहा है.

क्या रूस से दूरी बना ले भारत?
भारत और रूस का रिश्ता भावनात्मक भी रहा है, लेकिन मौजूदा हालात में भारत को भावनाओं से नहीं, ठोस रणनीति से काम लेना होगा. रूस के साथ रिश्ते पूरी तरह तोड़ना भारत के हित में नहीं है, खासकर तब जब उसे अभी भी UNSC में स्थायी सदस्यता के लिए रूस के समर्थन की जरूरत है. साथ ही, कई हथियारों और सिस्टम की लॉजिस्टिक सपोर्ट भी अब तक रूस पर ही निर्भर है. लेकिन यह भी सच है कि भारत को अब इस रिश्ते में ‘भावनात्मक निर्भरता’ खत्म करनी होगी. रूस अब खुद चीन की छाया में है, और भविष्य में भारत के लिए चीन-पाकिस्तान-रूस त्रिकोण एक रणनीतिक सिरदर्द बन सकता है.
भारत की आगे की राह
भारत को अब बहुध्रुवीय कूटनीति को अपनाना होगा. फ्रांस, अमेरिका, जापान, इजरायल जैसे देशों के साथ साझेदारी को और गहराई देनी होगी ताकि चीन और पाकिस्तान के खिलाफ एक मजबूत ‘डेटरेंट’ विकसित किया जा सके. रूस के साथ रिश्ते बनाए रखें, लेकिन उन पर पूरी तरह निर्भर न रहें. भारत को यह समझना होगा कि अब विश्व राजनीति भावनाओं से नहीं, हितों से चलती है. इसलिए अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए, रणनीतिक रिश्तों की नई परिभाषा तय करनी होगी जिसमें संतुलन, विवेक और दूरदृष्टि हो.